Monday, March 28, 2011

नशे में चूर जीवनसाथी की प्रताड़ना


 स्पेन में ग्रेनेडा यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन नतीजे के मुताबिक दस में से छह किसी न किसी प्रकार के नशा करने वाले नशेड़ी अपने जीवनसाथी को प्रताडि़त करते हैं। नशे के आदी पुरुष अपना आपा खो देते हैं और जीवनसाथी के प्रति उपेक्षाभाव रखते हंै, उसे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल और उसका यौन शोषण करते हैं। शारीरिक प्रताड़ना 6.5 से 21 प्रतिशत तक रहती है, जबकि भावनात्मक प्रताड़ना 7.3 से 72.5 तक रहती है। अध्ययन में यह भी पता चला कि 51 प्रतिशत पुरुष नशेड़ी जानते हैं कि इस प्रकार की हिंसा से उनके साथी को आघात पहुंचता है। यदि हम भारतीय समाज की बात करें तो यहां की स्थिति कई गुना और बदतर होगी, क्योंकि यहां तुलनात्मक रूप से महिलाएं ज्यादातर दूसरे पर निर्भर तथा कमजोर सामाजिक, आर्थिक स्थिति में हंै। यों तो आज कल पीना-पिलाना सामाजिक स्टेटस की भी बात हो गई है। किसी शादी-ब्याह या पार्टी में इसके बिना रुतबा कहां है। धीरे-धीरे आधुनिक रहन-सहन के साथ वह नत्थी होता जा रहा है। हुक्का पीना तो ग्रामीण संस्कृति में पहले से ही रचा-बसा था, लेकिन उसे अब फैशनेबल जामा पहनाकर शहरी युवाओं में खासा प्रचलित किया जा रहा है। पिछले दिनों एक अखबार के रविवारी अंक में इस पर बाकायदा स्टोरी आई थी। इसमें बताया गया है कि हुक्के के चस्के में युवा लड़के-लड़कियां दोनों शामिल हैं। बार या मशहूर रेस्तरां की तरह अब पॉश इलाकों में हुक्का बार, हुक्का कैफे, हुक्का लाउंज या शीशा पार्लर नाम से खुले हैं। नशे के सौदागरों को तो कभी भी इस्तेमाल करने वालों की सेहत से मतलब नहीं होता, उल्टे वे गुमराह करते हैं। दिल्ली के दर्जनों ऐसे ठिकाने हंै, जो देर रात तक चलते हैं। 250-300 रुपये में कई घंटा हुक्का पीया जा सकता है। घरेलू हिंसा के मामलों में एक बड़ा प्रतिशत नशे के कारण आता है। दिल्ली पुलिस के महिला अपराध शाखा में आने वाले तथा घरेलू हिंसा कानून के तहत दर्ज होने वाले मुकदमों के अलावा राष्ट्रीय तथा राज्य महिला आयोगों एवं विविध महिला संगठनों के पास नशे में प्रताड़ना तथा घर की संपत्ति और पैसा बर्बाद कर देने के मामलों का अंबार लगा रहता है। शाहबाद की सर्वेश का पति कुछ कमाता नहीं तथा वह घरों में झाड़ू-पोछा करके जो कमाकर ले आती है, वह भी पीने के लिए उसका पति छीन लेता है। तीन बच्चे हंै, जिनकी पढ़ाई बीच में छूट गई है। कभी बच्चों के तो कभी मां के शरीर पर मार खाने का निशान लगा रहता है। यह स्थिति दिल्ली के भलस्वा, बवाना, सरदार कालोनी तथा कई अन्य जगहों की श्रमजीवी महिलाओं की रोज की कहानी है। वहीं मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की महिलाएं भी नशे के कारण हिंसा की शिकार होती हैं। हो सकता है कि वहां की संख्या थोड़ी कम हो या उनकी प्रताड़ना घर की ऊंची दीवारों के बाहर नहीं पहुंच पाती हो। आखिर उन्हें भी समाज में परिवार की इज्जत बचाकर ही तो रखनी है। मोना एक अच्छी संस्था में ठीक-ठाक ओहदे पर काम करती है। आजकल की प्राइवेट नौकरियों की तरह उसका भी काम का घंटा अधिक है। दफ्तर के बाद बसों में धक्का खाते जब आठ बजे रात तक घर पहुंचती है, तब तक उसके पति अक्सर नशे में जा चुके होते हैं। फिर कभी बोलकर थका देते हंै तो कभी घर में उठा-पटक मचा देते हंै। मोना को फिर अगले दिन के ऑफिस की चिंता रहती है। बस में, सड़क पर, मेट्रो में भी इन पियक्कड़ों को झेलना समस्या है। उनकी शरारत और बदतमीजी के बाद भी अन्य सवारियों से नशे में होने की सहानुभूति मिल जाती है। अक्सर यह कहते लोग मिल जाएंगे कि छोड़ो, नशे में है। उसके मुंह क्या लगना। सवाल यह उठता है कि नशे में सफर करने वाला कोई व्यक्ति यूरोप के किसी देश में क्या उसी ढंग से व्यवहार करेगा, जैसी कि छूट की कोई नशेड़ी यहां अपेक्षा करता है। दूसरे के अधिकारों का हनन करने के मामले में या अपने पार्टनर के साथ हिंसा के मामले में भारतीय पुरुष कितना अव्वल होते हैं, यह एक अन्य खबर से भी स्पष्ट हो जाता है। दुनिया के छह अलग-अलग देशों में अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानकों के आधार पर आठ हजार पुरुषों और 3,500 स्ति्रयों के बीच किया गया प्रस्तुत सर्वेक्षण भारतीय पुरुषों की चरम हिंसक प्रवृत्ति को उजागर करता है। इंटरनेशनल सेंटर फार रिसर्च ऑन वुमेन, अमेरिका और इंस्टीट्यूटो प्रोमुंडोन, ब्राजील द्वारा संयुक्त रूप से किया अध्ययन बताता है कि अपने जिंदगी में कभी न कभी 24 फीसदी भारतीय पुरुष यौन हिंसा को अंजाम देते हैं, सिर्फ 17 फीसदी भारतीय पुरुष ऐसे कहे जा सकते हैं, जो समानतामूलक संबंधों के हिमायती हैं। चिली, रवांडा, क्रोएशिया, ब्राजील और मैक्सिको जैसे देशों के बीच भारतीय पुरुष सबसे अधिक हिंसक कहे जा सकते हैं। यौन हिंसा को अंजाम देने वाले 24 प्रतिशत भारतीय पुरुषों के बरअक्स महज दो फीसदी ब्राजील के पुरुष या अन्य चार देशों- चिली, रवांडा, क्रोएशिया और मैक्सिको- के महज 9 फीसदी पुरुष यौन हिंसा को अंजाम देते हैं। ध्यान देने लायक है कि इन छह देशों में से पांच देशों में जहां औरत और पुरुष के बीच बराबरी के लिए सहमति जताई, जबकि भारतीय पुरुषों का मानना था कि यदि परिवार को जोड़े रखना है तो औरत को हिंसा बर्दाश्त कर लेनी चाहिए। यह भी पाया गया कि जो घर के अंदर बहुत हिंसक होते हैं और अपने पार्टनर के साथ शारीरिक और यौनिक हिंसा करते हैं, वे बाहर ऐसा नहीं करते। देशभर में 70-80 के दशक में शुरू हुए स्त्री आंदोलनों में एक मुख्य मुद्दा शराबबंदी आंदोलनों का रहा है। देश के विभिन्न कोनों से खबरें अभी तक कभी कभार आ जाती हंै कि महिलाओं ने शराब का ठेका बंद करवाया। अकारण ही महिलाएं नशे के खिलाफ लामबंद नहीं होती रही हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि महिलाएं नशा नहीं करती हैं, बल्कि मुद्दा यह है कि नशे में आकर कौन दूसरों का या अपने पार्टनर का सुकून अधिक छीनता है। नशे में होने के कारण या मात्र इसके बहाने भी हिंसा तथा उत्पीड़न को बर्दाश्त करने लायक नहीं माना जा सकता है। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

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