Friday, March 18, 2011

इस दखलंदाजी का दर्शन क्या है


 हाल में दिल्ली हाईकोर्ट में तलाक के एक मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस कैलाश गंभीर ने कहा कि शादीशुदा लड़की के जीवन में माता-पिता को बिन बुलाए जज नहीं बन जाना चाहिए। उन्होंने माता-पिता की अनावश्यक दखलंदाजी पर नाराजगी जताई। लड़के की तरफ से यह बताया गया था कि उसके सास-ससुर हमेशा उसके वैवाहिक जीवन में हस्तक्षेप करते हैं। निरपेक्ष ढंग से देखें तो जज साहब का नजरिया बिल्कुल सही है, क्योंकि किसी को भी किसी के निजी जीवन में जब तक कि मदद मांगी न जाए, दखल नहीं देना चाहिए। मगर तीसरी दुनिया के हमारे मुल्क में हकीकत यही नजर आती है कि माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्ग दरअसल बड़े हो चुके तथा अपनी गृहस्थी को स्वयं चलाने वाले बच्चों को भी व्यावहारिक रूप से नासमझ मानते हैं। अक्सर ही बड़ों को यह मुगालता होता है कि वह जो बता रहे हैं, वह सही और उचित है। जबकि नदी की अविरल धारा की तरह चलने वाली जिंदगी में उनकी तमाम बातें उस अतीत को संदर्भित किए होती हैं, जो कभी लौटने वाली नहीं होती। अगर जज साहब की टिप्पणी की ओर लौटें तो गौर कर सकते हैं कि उनकी टिप्पणी शादीशुदा बेटियों के लिए है, शादीशुदा बेटों के लिए नहीं।। हो सकता है यह फैसला देते वक्त किसी केस की विशेष परिस्थिति रही हो, लेकिन आमतौर पर परिवारों में सिर्फ लड़की के मां-बाप ही नहीं लड़के के मां बाप भी हस्तक्षेप करते हैं और रिश्तों में तनाव इस वजह से भी आता है। हमारे समाज में यही रीति चली आ रही है कि लड़की का दूसरा घर हो जाता है और लड़के का वही रहता है। कई बार देखा गया है कि जहां पति-पत्नी के आपसी संबंध भी इसी वजह से टकराव में बदल जाते हैं, जब लड़के के माता-पिता की उनके परिवार में साधिकार होती दखलंदाजी के मसले को दोनों हल नहीं कर पाते हैं। कुछ मातृवंशी समुदायों में लड़की माता-पिता के घर में रहती थी, लेकिन वहां भी स्थिति बदली है और अब ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है। परंपरा और संस्कृति से बदलाव में सामंजस्य लड़की को करना होता है। ससुराल की संस्कृति में उसे रचने-बसने की अपेक्षा होती है। यह अलग बात है कि लड़के कभी भी अपने ससुराल की संस्कृति में नहीं खपते हंै यानी विस्थापित लड़कियां होती हंै, लड़के नहीं। इस विस्थापन के कई सारे प्रतिकूल असर रिश्तों पर भी पड़ते ही है। यह तो सही है कि दोनों जगह बराबर नहीं हो सकता है, क्योंकि इसमें दोनों पक्षों के सामने कई तरह की व्यावहारिक दिक्कतें भी आ सकती हैं। पर इतना तो है ही कि इसमें हमारे यहां इस तरह के गैर-बराबरीपूर्ण रिश्तों का प्रतिबिंब भी देखा जा सकता है। भारतीय परिवार में लड़का-लड़की बराबर नहीं समझे जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण लड़की का दूसरे घर जाना होता है। इसमें उसके द्वारा वंश परंपरा का आगे नहीं बढ़ना भी शामिल होता है तथा माना जाता है कि वह मां-बाप के बुढ़ापे का सहारा नहीं है। परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि व्यावहारिक रूप से जो भी समस्याएं आए उनका जवाब तलाशने की कोई कोशिश ही न की जाए। कल्पना करें बेटा या बेटी शादी के बाद जब अपनी नई गृहस्थी बसाने योग्य बन जाते हैं तब यदि वे अपनी नई गृहस्थी न इस घर में और न उस घर में बसाकर स्वतंत्र रूप से बसाएं ताकि कोई भी विस्थापित न हो तथा हर माता-पिता के घर में बेटा-बेटी बराबर का दर्जा भी पाएं तो इसमें किस तरह की समस्या हो सकती है? इसमें एक प्रतिक्रिया यह भी आ सकती है कि यह तो परिवार को और छोटा करके तोड़ देने वाली बात है। हमारे यहां तो संयुक्त परिवार की परंपरा रही है और उसका महिमामंडन आज भी होता है, बिना इस बात की परवाह किए कि वहां पति और पत्नी के रिश्ते कितने तनावपूर्ण थे और महिलाओं की वास्तविक स्थिति क्या थी? संयुक्त परिवारों के प्रति यह सम्मोहन इस हकीकत से बिल्कुल विपरीत दिखता है जो उन सर्वेक्षणों में उजागर होती है, जिनसे पता चलता है कि अब ऐसे परिवार नाममात्र को ही रह गए हैं और अधिकतर जोर नाभिकीय परिवार अथवा न्यूक्लियर फैमिली बनने की तरफ ही है। वर्तमान समय में यह समझने की आवश्यकता है कि जिम्मेदारी बोध साथ-साथ रहने से आ ही जाएगा यह कोई जरूरी नहीं। अलग-अलग रहकर भी दोनों पक्षों द्वारा अपनी जिम्मेदारी निभाई जा सकती है। माता-पिता अथवा परिवार के अन्य सदस्य जब अशक्त हो जाएं या फिर जब जरूरत हो तब वह उनके साथ रह सकते हैं या उन्हें अपने साथ रखा जा सकता है। परंतु अधिकतर माता-पिता बच्चों की शादी के बाद भी शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं तथा अपनी गृहस्थी स्वयं चलाने में पूरी तरह सक्षम होते हैं। यहां एक बात और स्वीकार करने लायक है कि बच्चे का परिवार भी माता-पिता के जीवन में दखलंदाजी करने लगता है। खुद दिल्ली के तथा दूसरे जगहों के न्यायालयों में ऐसे केस दर्ज हुए हंै जिसमें माता-पिता ने शिकायत दर्ज कराई कि उनके बेटे या बहू ने उनकी संपत्ति पर कब्जा कर रखा है। नोएड़ा की एक महिला जो विधवा हंै उन्हें उनके बेटे ने घर से निकाल दिया तथा वे किराए के घर में रहती हंै और पति की पेंशन जो उन्हें मिलती है उसी से अपना गुजारा करती हैं, जबकि उनके पास लाखों की अचल संपत्ति होती है। इस संदर्भ में दिल्ली स्थित तीस हजारी कोर्ट के एक मजिस्ट्रेट का भिक्षुकगृह के एक दौरे का अनुभव चौंकाने वाला लग सकता है। मालूम हो कि भिक्षुक गृह वह जगह होती है जहां शहर में भीख मांगते पकड़े गए लोग एक तरह से बंदी बनाकर रखे जाते हैं। जब संबंधित मजिस्ट्रेट ने लामपुर भिक्षुकगृह का अचानक दौरा किया तो 50 भिक्षुक ऐसे मिले जिनका अपना मकान और संपत्ति है तथा वे पढ़े-लिखे हैं, लेकिन बच्चों ने उन्हें घर से निकाल दिया है। दरअसल बैकुंठ शर्मा नाम के एक बुजुर्ग ने कोर्ट में केस दायर किया था कि उनके साथ दोहरा अन्याय हुआ है। एक तो बच्चों ने उन्हें उनके अपने मकान से निकाल दिया और जब वे मजबूर होकर भीख मांग रहे थे तो दिल्ली पुलिस ने पकड़कर उन्हें भिक्षु सुधारगृह में डाल दिया। उन्होंने अदालत में अपील की कि उनके भरण पोषण इंतजाम किया जाए। वैसे बुजुर्गो का मामला तो आज के समाज में एक अलग से ही चर्चा का विषय है, लेकिन यह घटनाएं बताती हैं कि किस तरह समाज में उनकी उपेक्षा की जा सकती है। रही बात रिश्तों की अथवा माता-पिता या बेटा-बेटी के जीवन में हस्तक्षेप की तो इस बात का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि कहां उनके सहयोग और समर्थन की जरूरत है और कब वह गैर जरूरी हो जाता है। काउंसलिंग का एक बुनियादी नियम है कि जब तक कोई सलाह नहीं मांगे तब तक उसे देना नहीं चाहिए। भारत में तो व्यक्तिगत अधिकारों के प्रति अहसास इतना कम है कि लोग राह चलते भी दूसरों को सलाह देना नहीं भूलते, बल्कि वह इसे अपना जरूरी फर्ज समझते हैं। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

No comments:

Post a Comment