Thursday, December 23, 2010

जारी करो फतवा

बात-बात में फतवा देने वाले मौलानाओं/इमामों से मुसलमान औरतें गुजारिश करती हैं कि वे फैलती दहेज प्रथा और मादा भ्रूण  हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करें और समाज में फैल रही कुरीतियों से औरतों को बचाएं। इस्लाम में इस तरह की सामाजिक बुराइयों की पारंपरिक रूप से कोई जगह नहीं रही है। आधुनिक लड़कियां जो पढ़-लिख रही हैं, इन बुराइयों से नयी पीढ़ी को बचाना चाहती हैं। फिरदौस खान की रिपोर्ट
दहेज के बढ़ रहे मामलों के कारण मध्य प्रदेश में 60 फीसद, गुजरात में 50 फीसद और आंध््रा प्रदेश में 40 फीसद लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है।
हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दहेज प्रथा और कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयां तेजी से पांव पसार रही हैं। खास बात यह है कि यह सब आधुनिकता के नाम पर हो रहा है। हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम वाल्देन लड़की के गुणों से ज्यादा दहेज को तरजीह (प्राथमिकता) दे रहे हैं। एक तरफ जहां बहुसंख्यक तबका दहेज और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहा है, वहीं शरीयत के अलम्बरदार मुस्लिम समाज में फैलती इन बुराइयों के मुद्दे पर आंखें मूंदे बैठे हैं। काबिलेगौर है कि दहेज की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनकी पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जा रहा है। इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि उनके विवाह और दहेज में काफी रकम खर्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता। खास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रकम तय करते वक्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का वास्ता दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को ताक पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है। उत्तर प्रदेश में तो हालत यह है कि शादी की बातचीत शुरू होने के साथ ही लड़की के परिजनों की जेब कटनी शुरू हो जाती है। जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं तो सबसे पहले देखा जाता है कि नाश्ते में कितनी प्लेटें रखी गई हैं, यानी कितने तरह की मिठाई, सूखे मेवे और फल रखे गए हैं। इतना ही नहीं, दावतें भी मुग्रे की ही चल रही हैं, यानी चिकन बिरयानी, चिकन कोरमा वगैरह। फिलहाल 15 से लेकर 20 प्लेटें रखना आम हो गया है और यह सिलसिला शादी तक जारी रहता है। शादी में दहेज के तौर पर जेबरात, फर्नीचर, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, कीमती कपड़े और तांबे-पीतल के भारी बर्तन दिए जा रहे हैं। इसके बावजूद, दहेज में कार और मोटर साइकिल मांगी जा रही है। भले ही, लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वह तेल का खर्च भी उठा सके। जो वाल्देन अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी हैं। मुरादाबाद की किश्वरी उम्र के 45 वसंत देख चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनकी हथेलियों पर सुहाग की मेंहदी नहीं सजी। वह कहती हैं कि मुसलमानों में लड़के वाले ही रिश्ता लेकर आते हैं, इसलिए उनके वाल्देन रिश्ते का इंतजार करते रहे। वे बेहद गरीब हैं, इसलिए रिश्तेदार भी बाहर से ही दुल्हनें लाए। अगर उनके वाल्देन दहेज देने की हैसियत रखते तो शायद आज वह अपनी ससुराल में होतीं और उनका अपना घर-परिवार होता। उनके अब्बू कई साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए। घर में तीन शादीशुदा भाई, उनकी बीवियां और उनके बच्चे हैं। सबकी अपनी खुशहाल जिंदगी है। किश्वरी दिनभर बीड़ियां बनाती हैं और घर का कामकाज करती हैं। अब बस यही उनकी जिंदगी है। उनकी अम्मी को हर वक्त यही फिक्र सताती है कि उनके बाद बेटी का क्या होगा, यह अकेली किश्वरी का किस्सा नहीं है। मुस्लिम समाज में ऐसी हजारों लड़कियां हैं, जिनकी खुशियां दहेज रूपी लालच निगल चुका है। राजस्थान के बाड़मेर की रहने वाली आमना के शौहर की मौत के बाद पिछले साल 15 नवम्बर को उनका दूसरा निकाह बीकानेर के शादीशुदा उस्मान के साथ हुआ, जिसके पहली पत्‍नी से तीन बच्चे भी हैं। आमना का कहना है कि उसके वाल्देन ने दहेज के तौर पर उस्मान को 10 तोले सोने, एक किलो चांदी के जेवर, कपड़े और घरेलू सामान दिया था। निकाह के कुछ बाद ही उसके शौहर और उसकी दूसरी बीवी जेबुन्निसा कम दहेज के लिए उसे तंग करने लगे। यहां तक कि उसके साथ मारपीट भी की जाने लगी। वे उससे एक स्कॉर्पियो गाड़ी और दो लाख रु पए और मांग रहे थे। आमना कहती हैं कि उनके वाल्देन इतनी महंगी गाड़ी और इतनी बड़ी रकम देने के काबिल नहीं हैं। आखिर जुल्मोसितम से तंग आकर आमना को पुलिस की शरण लेनी पड़ी। राजस्थान के गोटन की रहने वाली गुड्डी का करीब एक साल पहले सद्दाम से निकाह हुआ था। शादी के वक्त दहेज भी दिया गया था, इसके बावजूद उसका शौहर और उसके ससुराल के अन्य सदस्य दहेज के लिए उसे तंग करने लगे। उसके साथ मारपीट की जाती। जब उसने और दहेज लाने से इंकार कर दिया तो पिछले साल 18 अक्टूबर को उसके ससुरालवालों ने मारपीट कर उसे घर से निकाल दिया। अब वो अपने मायके में है। मुस्लिम समाज में आमना और गुड्डी जैसी हजारों औरतें हैं, जिनका परिवार दहेज की मांग की वजह से उजड़ चुका है।यूनिसेफके सहयोग से जनवादी महिला समिति द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दहेज के बढ़ रहे मामलों के कारण मध्य प्रदेश में 60 फीसद, गुजरात में 50 फीसद और आंध््रा प्रदेश में 40 फीसद लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है। दहेज को लेकर मुसलमान एकमत नहीं हैं। जहां कुछ मुसलमान दहेज को गैर इस्लामी करार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज मानते हैं । उनका तर्क है कि हजरत मुहम्मद साहब ने भी तो अपनी बेटी फातिमा को दहेज (कुछ सामान) दिया था। खास बात यह है कि दहेज की हिमायत करने वाले मुसलमान भूल जाते हैं कि पैगंबर ने अपनी बेटी को विवाह में बेशकीमती चीजें नहीं दी थीं। इसलिए उन चीजों की दहेज से तुलना नहीं की जा सकती। यह उपहार के तौर पर थीं। उपहार मांगा नहीं जाता, बल्कि देने वाले पर निर्भर करता है कि वह उपहार के तौर पर क्या देता है, जबकि दहेज के लिए लड़की के वाल्देन को मजबूर किया जाता है। लड़की के वाल्देन अपनी बेटी का घर बसाने के लिए हैसियत से बढ़कर दहेज देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े। मुसलमानों में बढ़ती दहेज प्रथा के कारण कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई भी पनप रही है। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक, देश की कुल आबादी में 13.4 फीसद मुसलमान हैं और लिंगानुपात 936 है। मुरादाबाद की शकीला कहती हैं कि उनके ससुराल वाले बेटा चाहते थे, इसलिए हर बार बच्चे के लिंग की जांच कराते और लड़की होने पर गर्भपात करवा दिया जाता है। उनके चार बेटे हैं, इन चार बेटों के लिए वह अपनी पांच बेटियों को खो चुकी हैं। उन्हें इस बात का बेहद दुख है। लाचारी जाहिर करते हुए वह कहती हैं कि एक औरत कर भी क्या सकती है। इस मर्दाने समाज में औरत के जज्बात की कौन कद्र करता है। मुसलमानों में लिंग जांचने और कन्या भ्रूण हत्या को लेकर दारूल उलूम नदवुल उलमा (नदवा) और फिरंगी महल के दारूल इता फतवे जारी कर चुके हैं। फतवों में कहा गया था कि शरीयत गर्भ का लिंग आधारित जांच की इजाजत नहीं देती, इसलिए यह नाजायज है। ऐसा करने से माता-पिता और इस घृणित कृत्य में शामिल लोगों को गुनाह होगा। काबिलेगौर बात यह है कि इस तरह के फतवों का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाता। ऐसे फतवे कभी-कभार ही आते हैं, जबकि बेतुके फतवों की बाढ़ आई रहती है।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि पिछले काफी अरसे से आ रहे ज्यादातर फतवे महज मनोरंजन का साधन ही साबित हो रहे हैं। भले ही, मिस्र में जारी मुस्लिम महिलाओं द्वारा कुंवारे पुरुष सहकर्मिंयों को अपना दूध पिलाने का फतवा हो या फिर महिलाओं के नौकरी करने के खिलाफ जारी फतवा। अफसोस है कि मजहब की नुमाइंदगी करने वाले लोग समाज से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेते। हालांकि इसी साल मार्च में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा पर चिंता जाहिर करते हुए इसे रोकने के लिए मुहिम शुरू करने का फैसला किया था। बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य जफरयाब जिलानी के मुताबिक, मुस्लिम समाज में शादियों में फिजूलखर्ची रोकने के लिए इस बात पर भी सहमति जताई गई थी कि निकाह सिर्फ मस्जिदों में ही करवाया जाए और लड़के वाले अपनी हैसियत के हिसाब से वलीमें करें। साथ ही, इस बात का भी ख्याल रखा जाए कि लड़की वालों पर खर्च का ज्यादा बोझ न पड़े, जिससे गरीब परिवारों की लड़कियों की शादी आसानी से हो सके। इस्लाह-ए- मुआशिरा (समाज सुधार) की मुहिम पर चर्चा के दौरान बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि निकाह पढ़ाने से पहले उलेमा वहां मौजूद लोगों को बताएं कि निकाह का सुन्नत तरीका क्या है और इस्लाम में यह कहा गया है कि सबसे अच्छा निकाह वही है जिसमें सबसे कम खर्च हो। साथ ही, इस मामले में मस्जिदों के इमामों को भी प्रायश्चित किए जाने पर जोर दिया गया था सिर्फ बयानबाजी से कुछ होने वाला नहीं है। दहेज और कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने की जरूरत है। इस मामले में मस्जिदों के इमाम अहम किरदार अदा कर सकते हैं। जुमे की नमाज के बाद इमाम नमाजियों से दहेज न लेने की अपील करें और उन्हें बताएं कि ये बुराइयां किस तरह समाज के लिए नासूर बनती जा रही है। इसके अलावा, औरतों को भी जागरूक करने की जरूरत है, क्योंकि देखने में आया है कि दहेज का लालच मर्दाें से ज्यादा औरतों को होता है। अफसोस की बात तो यह भी है कि मुस्लिम समाज अनेक हिस्सों में बंट गया है। अमूमन सभी तबके खुद को असली मुसलमान साबित करने में ही जुटे रहते हैं और मौजूदा समस्याओं पर उनका ध्यान जाता ही नहीं है। बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि अगर मजहब के ठेकेदार कुछ सार्थक काम भी कर लें, तो मुसलमान औरतों का कुछ तो भला हो ही जाएगा।

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