Tuesday, February 14, 2012

समाज पर गंभीर सवाल


नई दिल्ली में महज दो वर्ष की एक बच्ची के साथ हुए अमानवीय बर्ताव और दरिंदगी की घटना को सुनकर पूरा देश चकित है। इसे लेकर मीडिया और बुद्धिजीवियों में एक तरह की बहस छिड़ी हुई है, लेकिन महिलाओं और लड़कियों के साथ ऐसी न जाने कितनी भेदभाव की घटनाएं आए दिन होती रहती हैं जिनका संज्ञान शायद ही किसी को होता है। फिर बात चाहे कन्या भ्रूण हत्या की हो, दहेज अपराधों की अथवा घरेलू हिंसा की। इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक कल्याण विभाग की यह रिपोर्ट कोई बहुत चौंकाने वाली नहीं है कि लड़कियों की असुरक्षा के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जनगणना आंकड़ों से भी पता चलता है कि भारत में महिला और पुरुष का अनुपात काफी असंतुलित है, जो प्रति 1000 पुरुषों पर महज 914 महिलाओं का है। आज यह एक आम धारणा बन गई है कि भ्रूण हत्या दहेज मांगों की वजह से होती है, क्योंकि परिवार दहेज की वजह से बेटियों को बोझ समझकर उन्हें पैदा ही नहीं होने देना चाहते। मैं इस विचार और तर्क से सहमत नहीं। दहेज बेटियों की अवमानना का कारण नहीं, बल्कि महज लक्षण है। दहेज केवल उन्हीं संप्रदायों में दिया जाता है, जिनमें बेटियों को संपत्ति अधिकार से वंचित किया गया है। यह कुचक्र अंग्रेजी शासन काल के दौरान चला, जिसके तहत भूमि बंदोबस्त अभियान व संपत्ति संबंधी कानूनों में बहुत से स्त्री विरोधी फेरबदल किए गए। इनमें सबसे अहम बदलाव मातृवंशी परिवारों को पितृवंशी संपत्ति वितरण प्रणाली की ओर धकेलना और परंपरागत सामूहिक पारिवारिक संपत्ति को निजी संपत्ति में बदल दिया जाना था। पारिवारिक सामूहिक संपत्ति की व्यवस्था आदिवासियों और जनजातियों में होती है, जिसमें हर एक को समान रूप से चाहे वह अजन्मा बच्चा ही क्यों न हो, को उत्तराधिकार का अधिकार था और इसे किसी भी तरह से चुनौती नहीं दी जा सकती थी, लेकिन बाद में जब पुरुष के हाथ में संपत्ति का अधिकार आ गया तो बेटियों का अधिकार लुप्त हो गया और इसके बदले में स्त्री धन अथवा दहेज की परंपरा शुरू हुई, जो क्षतिपूर्ति का एक रूप था। बेटियों को मिलने वाला दहेज कभी भी बेटों को मिलने वाली संपत्ति के बराबर नहीं रहा। इसके अतिरिक्त बेटों को अचल संपत्ति दी जाती है, जिसमें मकान, दुकान, व्यापार, जमीन आदि शामिल होता है, जबकि बेटियों को चल संपत्ति दी जाती है, जिनमें जीवन निर्वाह की चीजें, बर्तन, फर्नीचर, गहने आदि होते हैं। अब जब आर्थिक अधिकार से वंचित बहू ससुराल जाती है तो वह इसे पाना चाहती है, जिससे सास-ससुर और ससुराल वालों के साथ उसका टकराव लड़ाई-झगड़े में बदल जाता है। आज कानून तो बदल गया है, लेकिन मानसिकता नहीं बदली। बेटियों को अब भी पराया धन समझा जाता है और उसे माता-पिता के परिवार का अटूट अंग नहीं माना जाता, जिससे उसकी स्थिति कमजोर ही रहती है। इसके अलावा किसी भी समाज में जब सामाजिक हिंसा और अपराध बढ़ जाता है तो इसका सबसे ज्यादा प्रभाव स्ति्रयों पर होता है। भारत में भी पर्दा प्रथा, घूंघट, बुर्का आदि उन्हीं क्षेत्रों में पाया जाता है जो करीब एक हजार साल तक बाहरी हमलों से ग्रस्त रहे हैं। जो संप्रदाय महिलाओं की अस्मिता बचाने में अक्षम हुए उन्हीं संप्रदायों के पुरुषों ने स्ति्रयों को घूंघट में या चहारदीवारी में कैद किया। इस तरह बाहरी समाज से कटी इन महिलाओं में बाहरी दुनिया को समझ पाने और उन्हें झेलने की क्षमता खत्म होती गई और वे परनिर्भरता के लिए मजबूर हो गई। आज भी सरकार कानून एवं व्यवस्था के माध्यम से महिलाओं को सुरक्षा देने की बजाय अपराधियों को ही संरक्षण देती नजर आती है। ऐसे में माता-पिता के लिए बेटियों का समुचित पालन-पोषण कर पाना मुश्किल होता है। इसलिए असुरक्षा बोझ से मुक्त होने के लिए बेटियों की कम उम्र में शादी कर दी जाती है। इस तरह बेटियों के साथ एक अनवरत शोषण का सिलसिला शुरू हो जाता है। उत्तर भारत के गांवों में यह कथन आज भी कहा जाता है-जितने बेटे उतना लठ, जितना लठ उतना कब्जा। यानी संपत्ति की रक्षा के मामले में भी लड़कियों को कमतर आका जाता है, क्योंकि वे वह काम नहीं कर सकतीं जो पुरुष कर सकते हैं। निश्चित ही लड़ाई-झगड़े के काम में लड़कियां कमजोर होती हैं इसलिए वह परिवार के लिए उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह जातीं। इस कारण भी उनके साथ भेदभाव होता है। यह बात शहर और गांव, शिक्षित और अशिक्षित सभी पर लागू होता है। इस तरह की धारणा बेटी को अपंग और एक तरह से कमजोर बना देती है। बेटी को जहां पराया धन समझा जाता है वहीं बेटों को आज भी बुढ़ापे का सहारा माना जाता है। मां-बाप समझते हैं परिवार बेटों के बिना फल-फूल नहीं सकता, लेकिन यह धारणा इस देश में बूढ़े मां-बाप के लिए घातक सिद्ध हो रही है। भारत को परिवार की तुलना उन समाजों से करनी चाहिए जहां बेटियां उत्तराधिकारी होती हैं, जैसा कि थाईलैंड और मणिपुर आदि में हैं। यहां बेटे और बहुओं की तुलना में बेटियां उत्तराधिकारी होती हैं, जो मां-बाप की ज्यादा अच्छी देखभाल करती हैं। जाहिर है बेटियों के प्रति भेदभाव के नजरिए से न केवल परिवार कलह का शिकार हो रहे हैं, बल्कि कन्या भ्रूण हत्या के कारण लिंगानुपात बिगड़ रहा है और प्रत्येक पुरुष को जीवनसाथी नहीं मिल पा रहा। इससे जहां दुष्कर्म आदि की घटनाएं बढ़ रही हैं वहीं स्ति्रयों की खरीद-फरोख्त का बाजार फल-फूल रहा है। एम्स में जीवन-मौत से जूझ रही बच्ची के साथ हुआ दु‌र्व्यवहार इसी व्यवस्था और मानसिकता का परिणाम है, जिन्हें समूल नष्ट करने के लिए हमें समग्रता में विचार करने की आवश्यकता है। (लेखिका दिल्ली स्थित सामाजिक विज्ञान शोध केंद्र-सीएसडीएस में सीनियर फेलो हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

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