Saturday, July 14, 2012

बिकने को मजबूर लाचार लड़कियां

एक गैर सरकारी संस्था ने कुछ समय पहले दिल्ली के द्वारका स्थित एक फ्लैट से घरेलू नौकरानी के रूप में काम करने वाली 13 साल की एक मासूम को उस समय मुक्त कराया था जब उसके मालिक उसे घर पर ही बंद कर विदेश घूमने चले गए। झारखंड के गुमला जिले की रहने वाली यह बच्ची न केवल घर में बंद थी बल्कि तीन दिनों से भूखी भी थी। उसका कहना था कि मालिक उसे डरा धमका कर रखते थे और बाहर जाने पर पुलिस से पकड़वाने की बात भी कहते थे। उसे नाखूनों के जख्म दिए जाते थे और कभी-कभी खाना तक नहीं मिलता था। यह घटना रांची की रहने वाली एक और नाबालिग के साथ करीब चार साल पहले की भी याद दिलाती है जो दिल्ली स्थित अपने मालिक के अत्याचार से बहुत त्रस्त थी और टीबी की शिकार हो गई। बाद में इलाज के खर्च से बचने के लिए मालिक ने उसे एक बिचौलिए के साथ रांची के लिए ट्रेन में रवाना कर दिया। लंबे इलाज के बाद ही उसे बचाया जा सका। अपने साथ हुए अमानवीय कृत्य से सदमे में आई यह बच्ची कई दिनों तक घर से निकलने में भी डरती थी। झारखंड की न जाने कितनी मासूम लड़कियां महानगरों में इस अमानुषिक और पाशविक व्यवहार का शिकार हो रही हैं। ऐसी अनगिनत लड़कियों का सालों से अपने परिवार से कोई संपर्क नहीं है। माना जा रहा है कि दिल्ली जैसे महानगरों में झारखंड की इन गरीब लड़कियों को बेचने वाले बिचौलिए और प्लेसमेंट ऐजेंसियां मालामाल हो रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि अकेले दिल्ली में इस समय 6000 प्लेसमेंट ऐजेंसियां कार्यरत हैं। सर्वविदित है कि झारखंड निर्माण के बाद से रोजगार के लिए होने वाला पलायन यहां घटने की बजाए और बढ़ा है। कुछ मामलों में लड़कियों ने भले ही अपनी इच्छा से महानगरों की ओर रुख किया हो लेकिन ज्यादातर मामले ठगी से बेचने के ही होते हैं। एक गैर सरकारी संस्था के आंकड़ों के मुताबिक झारखंड की करीब एक लाख 23 हजार लड़कियां दूसरे राज्यों के महानगरों में काम रही हैं। और जरूरी नहीं कि सभी लड़कियां घरेलू कामगार के रूप में ही काम करतीं हो। किसी को वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेल दिया जाता है तो किसी की गरीबी का फायदा उठाकर उसकी शादी उससे दोगुनी उम्र के आदमी से करवा दी जाती है या किसी को किसी फैक्टरी में बंधुआ मजदूर बना दिया जाता है। परोक्ष रूप से बिकने वाली इन लड़कियों का परिवार इनकी स्थिति से इस हद तक अनभिज्ञ रहता है कि उनके लिए यह जानना तक मुश्किल होता है कि उनकी बेटी जिंदा भी है या नहीं। ज्यादातर बिचौलिए परिवार के ही नजदीकी या परिचित होते हैं जिनका महानगरों की प्लेसमेंट एजेंसियां या मानव तस्करी के धंधे में लिप्त लोग अपने लिए सस्ते दामों में इस्तेमाल करते हैं और खुद मोटी कमाई करते हैं। एक घटना में रांची जिले के अंतर्गत बुढ़मू प्रखंड के ग्रामीणों ने अपने गांव की लड़की को दिल्ली में बेचने वाले एक बिचौलिए की जमकर पिटाई की। 16 साल की उक्त नाबालिग को उसने स्कूल जाते समय अगवा कर लिया था और दिल्ली में 30 हजार रुपये में बेच दिया। लड़की किसी तरह वहां से भागकर गांव वापस आ गई। दिल्ली स्थित चाइल्ड वेलफेयर कमेटियों के मुताबिक नाबालिगों को श्रम के नाम पर बेचने के कारोबार में पश्चिम बंगाल के बाद झारखंड का ही स्थान है। इस धंधे में सक्रिय लोग झारखंड के अति पिछड़े इलाकों की गरीब, अनपढ़ या मामूली पढ़ी-लिखीं लड़कियों को अपने जाल में फंसाते हैं। इनमें से अधिकतर ऐसे परिवार से संबंध रखती हैं जहां या तो पिता का साया सिर से उठ चुका होता है या घर का पुरुष कुछ करने लायक नहीं होता। बिकने वाली लड़कियां दो-तीन हाथों से गुजरती हैं इसलिए उनके लिए जानना मुश्किल होता है कि उनका असल गुनहगार कौन है? बहरहाल, रोजी-रोटी के लिए पलायन या बिकने का मसला इस राज्य के लिए नई बात नहीं। 2002 में बिहार से अलग होकर नये राज्य के रूप में अस्तित्व में आया झारखंड यूं तो गरीब प्रदेश माना जाता है लेकिन यहां देश की अकूत खनिज संपदा भरी पड़ी है। देश का 33 प्रतिशत कोयला यहीं पाया जाता है और यह अन्य खनिजों से भी भरापूरा है। इसीलिए कॉरपोरेट घरानों की नजरें झारखंड के जल- जंगल-जमीन पर लगी रहती हैं फिर भी यह प्रदेश अपनी गरीब जनता को रोजगार देने में असमर्थ है और सरकार के पास र्तकों की कमी नहीं। एक तरफ सूबे के मुख्यमंत्री कहते हैं कि इस तरह की समस्याओं से जूझने और बाल श्रम रोकने के लिए पंचायत स्तर पर काम हो रहा है, जो कहीं नजर नहीं आ रहा, वहीं राज्य की समाज कल्याण और बाल व महिला विकास मंत्री कहती हैं कि नाबालिग लड़कियों को बाहर भेजने के लिए सबसे अधिक दोषी उनका परिवार और समाज ही है। सरकार राज्य की इस विकराल समस्या का समाधान क्यों नहीं कर पा रही है, इसका जवाब सरकार और उसके किसी मंत्री के पास नहीं। परिवार और समाज पर दोषारोपण करके सरकार अपना ही मजाक बना रही है। यूं झारखंड सरकार हर मंच पर यह स्वीकारने से इंकार नहीं करती कि राज्य के विकास की कड़ी यहां की आदिवासी लड़कियों के विकास के साथ भी जुड़ी है। इसी के निमित्त 2012 झारखंड में बिटिया वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है लेकिन कथनी-करनी का फर्क इसी से नजर आ जाता है कि पलायन जैसा मुद्दा उसके ऐजेंडे से लगभग नदारद हो चुका है तभी तो इस पर रोक के लिए कोई कारगर कदम सरकार की ओर से उठते नजर नहीं आ रहे। झारखंड के 24 जिलों में से जिन 13 से बड़ी संख्या में लड़कियां रोजगार के नाम पर शहर आती हैं, वे हैं- गढ़वा, रांची, साहिबगंज, दुमका, पाकुड़, पश्चिम सिंहभूम, पलामू, हजारीबाग, धनबाद, बोकारो, गिरिडीह, कोडरमा और लोहरा। ये लड़कियां दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, गोवा और कोलकाता आदि स्थानों में बेची जा रही हैं। इनमें 40 प्रतिशत 14 साल से कम आयु की हैं। वैिक स्तर पर भारत की 4.7 प्रतिशत आबादी मानव तस्करी की भेंट चढ़ रही है और इस खरीद-फरोख्त में सबसे ऊपर झारखंड और ओडिशा हैं, जहां 85 प्रतिशत पीड़ित 30 साल से कम आयु की हैं। यदि समय रहते झारखंड सरकार कोई कारगर कदम नहीं उठाती है तो यह राज्य लड़कियों की खरीद-फरोख्त की बड़ी मंडी बन जाएगा। सरकार को समझना होगा कि बिटिया वर्ष मनाने भर से राज्य की लड़कियों को वाजिब हक नहीं मिल सकता है। भविष्य की योजनाओं को सफल बनाने के लिए वर्तमान संवारना पहली शर्त है।

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