Saturday, February 5, 2011

जननी सुरक्षा योजना भी नहीं सुरक्षित


पि छले दिनों एक घटना में मध्यप्रदेश के बरमानी जिला सरकारी अस्पताल के बाहर वेपारी बाई की मौत पर आदिवासी इकट्ठे हुए। उन्होंने सरकार के खिलाफ अपना रोष प्रगट करने के लिए यह स्थान इसलिए चुना क्योंकि उनका आरोप था कि 22 वर्षीय गर्भवती बेपारी की मौत सरकारी मेडिकल अधिकारियों की संवेदनहीनता और लापरवाही के कारण हुई। आठ माह की गर्भवती वेपारी बाई का अचानक रक्तचाप बढ़ा और उसकी जान खतरे में नजर आने लगा। उसके गांव बान से नजदीकी प्राइमरी हेल्थ सेंटर करीब दस किलोमीटर की दूरी पर था। रिश्तेदार उसको वहां ले गए पर वहां बताया गया कि इस सेंटर में वे उपकरण नहीं हैं जो उसके इलाज के लिए होने चाहिए। लिहाजा बेपारी को एक एंबुलेंस में वहां से कम्युनिटी हेल्थ सेंटर भेज दिया गया। वहां भी इलाज करने की बजाए मेडिकल कर्मियों द्वारा उसे जिला सरकारी अस्पताल ले जाने के लिए कहा गया और जिला अस्पताल में भी उसके इलाज में लापरवाही बरती गई। अल्ट्रासांउड बाहर से कराने के लिए कहा गया जबकि यह सुविधा सरकारी अस्पताल में भी उपलब्ध थी। बाद में डाक्टरों ने परिजनों से वेपारी बाई को इंदौर ले जाने को कहा। परिजनों के ऐसा करने से इंकार करने पर अस्पताल ने स्पष्ट कर दिया कि कुछ भी बुरा घटने पर उसके लिए अस्पताल नहीं बल्कि परिजन जिम्मेदार होंगे। कुछ घंटों के बाद वेपारी बाई ने दम तोड़ दिया। जरूरी नहीं कि हर ऐसी घटना पर लोग सरकारी अस्पतालों के बाहर धरने के लिए इकट्ठे हों। यह भी जरूरी नहीं कि हर ऐसी घटना सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हो व मीडिया में आए। लेकिन ऐसी संवेदनहीन और लापरवाही की अनगिनत घटनाएं रोजाना अपने देश में होती रहती हैं। गाहे-बगाहे रिपोर्टें व स्वास्थ्य कार्यकर्ता ऐसी असलियत से हमें रूबरू कराते रहते हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की चार महीने पहले जारी रिपोर्ट के अनुसार मातृत्व मृत्यु दर प्रति लाख 254 है लेकिन गैर- सरकारी संस्थाओं के अनुसार असल में यह आंकड़ा ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन के अनुसार भारत में एक लाख शिशुओं के जन्म के पीछे 300 माताओं की मौत हो जाती है। यह मातृत्व मृत्यु दर चिंताजनक है। सरकार की कोशिश प्रसव के दौरान होने वाली मातृ मृत्यु दर को तीन चौथाई घटाना है। यह लक्ष्य सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य के तहत 2015 तक पूरा करना है। सवाल है कि क्या भारत इस लक्ष्य को तय अवधि में हासिल कर लेगा? क्योंकि जननी सुरक्षा योजना के अपेक्षित नतीजे सामने नहीं आ रहे हैं। सनद रहे कि केंद्र सरकार ने संस्थागत प्रसव कराने के लिए महिलाओं को प्रोत्साहित करने व मातृत्व मृत्यु दर पर नियंतण्ररखने और मातृत्व स्वास्थ्य में सुधार जैसे व्यापक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए देश में जननी सुरक्षा योजना शुरू की थी। इस योजना के अंतर्गत शिशुओं को जन्म देने के लिए महिलाओं को नकदी प्रोत्साहन राशि भी दी जाती है। लेकिन इस योजना पर कारगर तरीके से अमल नहीं हो रहा। कई राज्यों में 19 साल से कम उम्र की गर्भवती व दो बच्चों की माओं को इस योजना में शामिल नहीं किया गया है। मध्यप्रदेश में वर्ण-व्यवस्था भी इसकी राह में रोड़ा साबित हो रही है। यहां एएनएम व आशा कार्यकर्ता जिनका काम सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों को गरीब जनता तक पहुंचाना है, ही अक्सर गर्भवती दलित महिलाओं के साथ भेदभाव करती हैं। वे कभी-कभार ही दलित बस्तियों का दौरा करती हैं। दलित महिलाएं जननी सुरक्षा योजना से मिलने वाली रकम का एक बहुत बड़ा हिस्सा एएनएम व डाक्टरों को रिश्वत देने में खर्च कर देती हैं। प्रसंगवश हरियाणा के एक गांव के दलितों ने बताया कि सरकारी कल्याणकारी कार्यक्रम चाहे वे जननीतियों से जुड़े हों या उनके मवेशियों के बावत- कोई सरकारी सूचना, उन तक पहुंचती ही नहीं। कारण उनके टोले (मोहल्ले) गांवों में पीछे की ओर होते हैं और ऐसी योजनाओं की मुनादी करने वाला वहां नहीं आता। ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में भी जननी सुरक्षा योजना के वांंिछत नतीजे नजर नहीं आते। दरअसल इस राज्य में जिला स्तर के बाद ऐसी मौतों की जानकारी मिलना भी एक समस्या है। यहां न तो कोई शिकायत तंत्र है और न ही दुरुस्त आपातकालीन व्यवस्था। स्थितियां इतनी खराब हैं कि संस्थागत प्रसव होने के बाद फॉलो-अप करने की कोशिश तक नहीं की जाती। महिला को किस तरह की देखभाल उपलब्ध कराई जा रही है, इस बाबत भी कोई सूचना उपलब्ध नहीं हैं। राज्य में माओं की मृत्यु संबंधी विस्तृत दस्तावेज नहीं हैं। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को गर्भावस्था से सीधे संबंध रखने वाली या प्रसव से जुड़ी और प्रसव के 6 से 8 घंटे के भीतर हुई मौतों का रिकार्ड रखने को कहा जाता है। नवम्बर 2008 से अगस्त 2009 के दरम्यान इस राज्य में किये गये गई शोध के मुताबिक देश के सबसे बड़े इस राज्य में आबादी के अनुपात में सामुदायिक स्वास्थ्य केद्रों की संख्या कम है। इन केद्रों में एक तिहाई के पास पूर्णकालिक प्रसव कराने वाले विशेषज्ञ या स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं। प्रसव संबधी फस्ट एड के लिए दवाइयों की कमी अक्सर बनी रहती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार द्वारा गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली चिकित्सीय सेवाओं के बीच गहरा फासला है। सही समय पर चिकित्सीय सहायता न मिलने से कई तरह की जटिलताएं बढ़ती हैं। उत्तम संस्थागत प्रसूति व्यवस्था एक गर्भवती महिला को तब तक नहीं बचा सकती जब तक शिशु को जन्म देने के फौरन बाद अर्थात 24-72 घंटों के दौरान उसकी समुचित देखभाल न की जाए। जटिल मामलों का फॉलो-अप भी जरूरी है,जो वास्तव में बहुत कम मामलों में होता है। संस्थागत प्रसव कराने का मकसद मातृत्व मृत्यु दर में कमी लाना था लेकिन राष्ट्रीय स्वास्थ्य सव्रेक्षण 3 के अनुसार सबसे गरीब महिलाओं में से सिर्फ 13 प्रतिशत और 18 प्रतिशत अनपढ़ अथवा अनुसूचित आदिवासी महिलाएं प्रसव के लिए संस्थागत सेवा का इस्तेमाल करती हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन 2005 में शुरू किया गया और इस मिशन के दिशा-निर्देशों के अनुसार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और जिला अस्पताल के बीच स्थित प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में प्रसव सेवा की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके अलावा अन्य आपातकालीन सेवाएं भी उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व हैं। पर कहीं आधी-अधूरी सेवा उपलब्ध है तो कहीं मरीज का इलाज करने वाले असंवेदनशील और लापरवाह। औरतों की सेहत के प्रति सामाजिक नजरिए की हमेशा आलोचना हुई है तो सरकारी नजरिए में भी खोट है। एक तरफ सरकारी अस्पतालों की यह हालत तो दूसरी तरफ महंगी चिकित्सा सेवा की मार गरीब तबके की महिलाओं पर खास असर छोड़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि भारी मेडिकल बिलों को न चुकाने के कारण लोग घोर गरीबी की ओर बढ़ रहे हैं। यह चिंतनीय पहलू है जो गरीबी औरतों की जिंदगी पर अलग तरह का प्रतिकूल प्रभाव छोड़ती है। वह अपने पर खर्च होने वाली रकम में कटौती कर परिवार पर खर्च करना अपना धर्म समझती है और निभाती भी है। परिवार के ढांचे में उसके इस धर्म की खूब तारीफ होती है। और सरकार क्या करती है? योजनाओं का शुभारम्भ और उसके बाद सुस्त पड़ना उसके स्वभाव का एक हिस्सा बन गया है। दरकार इस मोर्चे पर सरकार की तरफ से दीर्घकालिक रणनीति अपनाने व सख्ती से उस पर अमल करने की है।


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