Tuesday, February 15, 2011

इसरो से आ रही घोटाले की बू


2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की कहानी अभी चल ही रही थी कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो का एस बैंड का नया घोटाला सामने आ गया है। अंतरिक्ष विभाग सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अधीन है, इसलिए वह अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते हैं। यदि वह घोटाले में सीधे शामिल नहीं हैं तो भी उनके राज चलाने पर सवाल खडे़ हो गए हैं। प्रतियोगी नीलामी के बिना बहुमूल्य एस बैंड स्पेक्ट्रम निजी कंपनी को देने के एंट्रिक्स समझौते पर उनकी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। इसरो द्वारा समझौता रद करने से यह प्रकरण समाप्त नहीं होगा, क्योंकि जितने जवाब होंगे उससे ज्यादा सवाल खडे़ होंगे। संगठन का दावा है कि स्पेस कमीशन ने जुलाई 2010 में समझौता रद करने की पहल की, पर वह यह नहीं बता पाया कि इस प्रक्रिया में 6 महीने क्यों लगे। इसके साथ ही 2005 में हुए समझौत के बाद इसरो को यह समझने में पांच साल लगे कि देवास के साथ समझौता देश के हित में नहीं था। सरकार को देर से आई समझ की बात मान ली भी जाए तो भी चीजें ठीक करने के लिए इसकी जांच करवानी चाहिए थी कि विवादास्पद समझौते पर हस्ताक्षर कैसे हुए? पर एक विवादास्पद समझौता समाप्त करने के बाद होने वाली सरकारी प्रतिक्रिया से ऐसा कदापि नहीं लगता कि वह मामले की तह तक पहुंचना चाहती है। हालांकि केंद्रीय एजेंसी की कंपनी एंट्रिक्स द्वारा किया यह गलत समझौता लागू होने पर सरकारी खजाने को लगभग 2 लाख करोड़ का नुकसान होता, इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि समझौते के बारे में कैबिनेट को अंधेरे में रखा गया। यदि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के पूर्व अध्यक्ष राधा कृष्णन की बात मानी जाए तो ऐसे मामले में कैबिनेट को कम से कम समझौते के बारे मे सूचित किया जाना चाहिए था। आश्चर्य है कि प्रशासन में मौजूद परिपक्व नौकरशाहों और वैज्ञानिकों ने ऐसा क्यों नहीं किया। स्पष्ट है कि समझौते पर हस्ताक्षर न केवल जल्दबाजी में, बल्कि छुपाकर किए गए। इससे एक अन्य मुद्दा उठता है। चूंकि स्पेस कमीशन तथा अन्य स्पेस एजेंसियां भारत के प्रधानमंत्री के प्रत्यक्ष नियंत्रण में आती हैं, इसलिए प्रधानमंत्री कार्यालय की संलिप्तता खारिज नहीं की जा सकती है। यदि कैबिनेट को दायरे से बाहर रखा गया हो तो भी समझौते पर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गौर किया जाना चाहिए था। इसलिए प्रधानमंत्री इससे अब तक अनजान कैसे रह सकते हैं। एस बैंड स्पेक्ट्रम प्लेट में रखकर देवास मल्टीमीडिया को पेश करने के साथ ही देवास मल्टीमीडिया की अचानक तरक्की भी महत्वपूर्ण है। 2004 में इसकी स्थापना इसरो संगठन के पूर्व वैज्ञानिक सचिव एमजी चंद्रशेखर द्वारा हुई थी और एक साल के भीतर ही यह ऐसा समझौता करने में सफल हो गई, जिसके लिए स्थापित संगठन कुछ भी खर्च कर सकते थे। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान तथा देवास मल्टीमीडिया ने जोर दिया है कि स्पेक्ट्रम आवंटित न होने के कारण किसी भी तरह का वित्तीय नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन यह तकनीकी मामले उठाकर मामला दबाने का प्रयास किया जा रहा है। तथ्य यह है कि प्राइवेट फर्म को दो संचार उपग्रह छोड़ने के बाद एक बार ट्रांसपांडर प्रयोग करने का मौका मिल जाता तो इसके बाद एस बैंड स्पेक्ट्रम मिल जाता। ऐसा तब और प्रासंगिक हो जाता है, जब दोनों उपग्रहों को देवास की आवश्यकतानुसार बनाया जाना था, जिसका उद्देश्य देश भर में और भारतीय रेलवे जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को उपग्रह आधारित ब्रॉडबैंड सेवाएं उपलब्ध कराना था। यदि भारत के लेखा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी ने समझौते को लाल झंडी न दिखाई होती तो देवास कंपनी परम प्रसन्न होती और जमकर फायदा उठाती। केंद्र सरकार को इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन, देवास मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड समझौते के बारे में अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। उसे अपनी बची-खुची छवि बचाने के लिए ऐसा करना चाहिए, जिसे अनेक घोटालों और स्कैंडलों खासकर 2जी स्टेक्ट्रम की भयंकर डकैती से जबर्दस्त नुकसान पहुंचा है। भारतीय अंतरिक्ष विभाग जिस तरह एंट्रिक्स कॉरपोरेशन को एक स्वतंत्र वाणिज्यिक कंपनी बताकर पूरे मामले से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहा है, उससे उसकी नियत पर शक और गहरा रहा। इसका गठन 1992 में अंतरिक्ष विभाग और इसरो ने किया था। इसी कंपनी ने 2007 में अपनी पंद्रहवीं सालगिरह पर न केवल अंतरिक्ष विभाग, बल्कि इसरो, विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर, नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी, इसरो सैटेलाइट ट्रैकिंग सेंटर, मास्टर कंट्रोल फैसिलिटी के कर्मचारियों को भी सोने के सिक्कों से नवाजा था। तब कंपनी का मुनाफा 56 करोड़ रुपये था, जिसमें सात करोड़ रुपये से ऊपर की रकम इन तोहफों पर खर्च हुई जब मामला कैग की निगाह में भी आया तो कंपनी ने जवाब दिया था कि वह अंतरिक्ष विभाग और इसरो के कर्मचारियों का धन्यवाद देना चाहती थी। कैग ने इन तोहफों पर विपरीत टिप्पणी की थी। एंट्रिक्स से सोने के सिक्कों की बौछार का यह मामला इसरो की व्यवस्था के भी विपरीत था, क्योंकि यहां हर उपग्रह की सफल लांचिंग पर कर्मचारियों को नकद प्रोत्साहन दिया जाता है। कुल मिलाकर अंतरिक्ष विभाग और एंट्रिक्स कॉरपोरेशन का कामकाज इस कदर अपारदर्शी है कि वहां घोटालों की कतार छिपी हो सकती है। सरकार पिछले कई वर्ष से अंतरिक्ष विभाग में तरह-तरह की अपारदर्शिताओं पर पर्दा डालती रही है। पिछले दो-तीन वर्ष में कैग सहित विभिन्न संस्थाओं ने अंतरिक्ष विभाग और इसकी वाणिज्यिक कंपनी एंट्रिक्स में अनियमितता के कई मामले पकड़े हैं, मगर सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के मातहत यह विभाग हर तरह की कारवाई से ऊपर रहा है। देवास का मामला तो 2005 का है, मगर अंतरिक्ष विभाग को कर्मचारियों को सोने के सिक्कों से नवाजे जाने का मामला सिर्फ तीन साल पहले का है। एंट्रिक्स कॉरपोरेशन शायद देश की अनोखी सरकारी कंपनी होगी, जिसने अपने प्रशासनिक विभाग और सहयोगी एजेंसियों को इतनी बड़ी संख्या में इतने महंगे तोहफे बांटे। इस उदारता की सूचना तब सरकार तक पहुंची भी थी, लेकिन अंतरिक्ष विभाग का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका। केंद्रीय सतर्कता आयोग कर्मचारियों को तोहफे देने पर रोक लगा चुका है। इसरो और देवास मल्टीमीडिया के बीच हुए करार को रद करने की तैयारियां कर रही सरकार ने अब इसकी समीक्षा के लिए समिति गठित कर दी है। योजना आयोग के सदस्य और पूर्व कैबिनेट सचिव बीके चतुर्वेदी की अध्यक्षता में गठित समिति को एक महीने के भीतर रिपोर्ट देने को कहा गया है, लेकिन इसी दौरान करार रद होने की खबरें बाहर आने के बाद ही देवास मल्टीमीडिया दावा कर रही है कि अंतरिक्ष के साथ हुए इस करार को खुद सरकार मंजूरी दे चुकी है। यह कानूनन बाध्यकारी है। ऐसे में अब सरकार अपने करार से कैसे मुकर सकती है। वैसे जुलाई 2010 में ही कानून मंत्रालय ने अंतरिक्ष विभाग को दी अपनी कानूनी राय में सरकार से करार को रद करने की सिफारिश की थी, जिस पर सरकार सात-आठ महीने बाद भी फैसला नहीं ले पाई है। एक ओर कांगे्रस समीक्षा समिति की आड़ में बचने का रास्ता ढूंढ़ रही है, जबकि भाजपा ने इस समिति पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। पार्टी प्रवक्ता निर्मला सीतारमण के अनुसार समझौते को मंजूरी देने वालों में शामिल चतुर्वेदी मामले की जांच कैसे कर सकते हैं? बहरहाल, एस बैंड घोटाले को लेकर एंट्रिक्स और देवास फंसी हुई है, वही इसरो की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विपक्ष के निशाने पर है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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