Wednesday, February 23, 2011

सुटेबल दब्बूपन


औरतों को घर से निकलना इतना डरावना क्यों लगता है? यह डर कैसे खत्म हो सकता है? डराने वालों का क्या किया जाए? इस पर कभी कोई बहस नहीं सुनी हो गी आपने। डर तो पुरुषों से है। पुरुषों की रची गई व्यवस्था है। ये वही पुरुष हैं, जिनको डरी हुई औरत अच्छी लगती है। वे भूल जाते हैं कि जो घर में डरी/सहमी रहती है, वह बाहर दबंगई कैसे दिखा सकती है
औरतों का दब्बूपन पुरुषों को बड़ा भाता है। वे डरी, सहमी औरत को आइडियलमानते हैं। उनकी तारीफ में कशीदे काढ़ते हैं और तेजतर्रार लड़कियों को बुरा बताकर खुश हो लेते हैं। इस बीच कई तरह के सव्रे आये, जिनमें से लगभग सब का कहना है कि औरतें समाज में खुद को असुरक्षित पाती हैं। उनको घर से बाहर अकेले निकलने में डर लगता है। सार्वजनिक वाहनों में उनके साथ पुरुष छेड़छाड़ करते हैं। रास्ते में चलते हुए पुरुषों की जुबान से निकली घिनौनी भाषा उनके कानों में पड़ना आम बात है। सव्रे करने वालों का काम यहीं खत्म हो जाता है। लेकिन इसके बाद किसको क्या करना है, यह किसी को नहीं मालूम। औरतों को घर से निकलना इतना डरावना क्यों लगता है? यह डर कैसे खत्म हो सकता है? डराने वालों का क्या किया जाए? इस पर कभी कोई बहस नहीं सुनी होगी आपने। डर तो पुरुषों से है। पुरुषों की रची गई व्यवस्था है। ये वही पुरुष हैं, जिनको डरी हुई औरत अच्छी लगती है। वे भूल जाते हैं कि जो घर में डरी/सहमी रहती है, वह बाहर दबंगई कैसे दिखा सकती है। पहले घर की औरत/लड़की के भीतर हिम्मत भरिए। पहले उसको साहस का पाठ पढ़ाइए, फिर उससे उम्मीद करिए कि अपने प्रति हो रहे अपराधों के खिलाफ मुंह खोले। किसी इंटरटेंमेंट चैनल पर यह देख कर मैं भौचक रह गयी, जिसमें एक सीन में चाची/बुआ टाइप की कोई कैरेक्टर एक लड़की से सच उगलवाने के लिए उसके बाल पकड़ कर पानी से भरे टब में उसका मुंह डुबो रही थी। उसके इर्द-गिर्द परिवार के ढेर सारे सदस्य अपने मेक-अप पुते चेहरों के साथ बिना किसी एक्सप्रेशन के खड़े थे। इस तरह के तमाम सीरियल मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहे हैं, जिनको लोग खूब मजे लेकर देखते हैं। मैं निश्चित रूप से यह कह सकती हूं कि ये सब वही लोग हैं, जिनको औरतों को सताना, उनको रोते-बिसुरते देखने की आदत इतने गहरे है। जो औरतें घर में ही सताई जा रही हैं, जिनको सांस लेने तक के लिए मुंह तकना पड़ता है, उनसे यह उम्मीद करना भी हास्यास्पद है कि वे रास्ते में होने वाली उद्दंडताओं का करारा जवाब देने का साहस कर सकती हैं। करारा जवाब देने के लिए हिम्मत होनी चाहिए, आत्मविश्वास होना चाहिए। भीतर से खुद को कमजोर मान कर अपराध सहते रहने की झिझक से बाहर निकलना चाहिए। जिस संकोच और शर्मीलेपन को अपने खांटी समाज में लड़की का गहना बता कर प्रचारित किया जाता रहा है, वही आज उसके गले की हड् डी बनता जा रहा है। ये जो हर घंटे एक नवविवाहिता दहेज लोभियों की कृपा से जिन्दा जला कर मार दी जाती है, ये सब कौन हैं? जी हां, ये लड़कियां भी वही हैं, जिनको लज्जा के गहनों से लादा है आप सबने। उद्दंडता और उपद्रवी होने की सलाह नहीं दे रही मैं, पर इतना तो समझिए कि लड़कियों का दब्बूपन उनके लिए जानलेवा साबित होता है। जो लड़कियां पति के र्दुव्‍यवहार के खिलाफ जुबान हिलाने से र्थराती हैं, उनसे यह उम्मीद करना कि वे दफ्तरों में अपने बॉस की ओछी हरकतों के खिलाफ एक लफ्ज भी बोलेंगी, संभव ही नहीं। साहसकोई वेंटिलेटर नहीं होता, जिसे जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल किया जाता रहे। साहस जन्मजात होता है, जिसको सामाजिक/पारिवारिक परिवेश में डेवलप किया जाता है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब दिल्ली की मेट्रो में औरतों के लिए अलग कोच आरक्षित किये गये थे। ढेरों पुरुषों का ईगो हर्ट हो गया। कुछ उपद्रवी तो तैश में आकर आरक्षित कोच को कब्जाने की चाह में भीतर भी घुस आये पर लड़कियों/औरतों ने उनकी जमकर इतनी पिटाई की कि वे कुछ सोचने लायक ही नहीं रहे। लड़के सिर्फ तभी तक इस तरह की हरकतें कर सकते हैं, जब तक लड़कियां पलट कर वार नहीं कर रहीं। जिस दिन वे मान लेंगी कि अब इनका एक भी ताना नहीं सुनना, उस दिन स्थिति खुद-ब-खुद बदल जाएगी। बता रहे हैं कि इस वैलेंटाइन डे पर शादी का आवेदन करने वाले जोड़ों में से कई गुना ज्यादा वे जोड़े थे, जो इच्छा से एक-दूसरे से अलग हो जाना चाहते थे। प्यार के खिलाफ झंडा फहराने वालों को तो यह मन ही मन बहुत भला सा लगेगा। पर सच तो यही है कि रोज-रोज की किच-किच से तो अच्छा ही है, प्रेम के साथ अलग हो जाना। साथ ना रहने का मतलब यह भी नहीं कि एक-दूसरे के दुश्मन बन जाएं। ये बदलाव सोसाइटी को अखरना लाजमी है, क्योंकि ऐ से सकारात्मक कदम औरतों की ही हिम्मत से उठते हैं। वे संबंधों में दुश्मनी नहीं निकाला करतीं, जैसा पुरुष करते आये हैं। वे बुरे से बुरे रिश्ते को झेलती रही हैं, पर अब उनका बढ़ता आत्मविश्वास, हर स्थिति के लिए उन्हें मजबूत कर रहा है। वे अपनी सारी ऊर्जा ब्याह के गठबंधन को ही बचाने के लिए नहीं जाया करती रहना चाहती। ऊर्जा के सकारात्मक उपयोग के लिए जरूरी है , निगेटिविटी से छुटकारा पाना और यह छुटकारा कोई और तो देगा नहीं, इसलिए कदम खुद ही बढ़ाने होंगे। सबक के तौर पर याद रखने लिए अभी-अभी आई एक खबर औरतों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। 53 साल के बेटे के खिलाफ एक मां ने गवाही दे कर उसके अपराधी होने का सबूत दिया। 15 जुलाई 2008 को उसके दो बेटों सुभाष और राजेन्दर के बीच झगड़ा हो गया। सुभाष ने राजेन्दर को ऐसा धक्का दिया कि उसका सिर सीढ़ियों से टकरा गया। मां के बीच-बचाव की कोशिशों के बावजूद सुभाष ने ईट से उसका सिर फोड़ा और भाग गया। यह उस बूढ़ी मां के साहस की मिसाल है, जिसने एक बेटा तो पहले ही खो दिया था और दूसरे के खिलाफ की गवाही न देकर उसको उम्र कैद होते देख रही है। यदि वह भी ममतालू होकर, टेसू बहाती बैठी रह जाती तो अपराध को साबित करना इतना आसान ना होता। यह सब कैसे संभव हुआ, इसके लिए उस मां को जरूर समझना चाहिए। क्योंकि वह आज के जमाने की जीती-जागती मदर इंडिया
है, जिस पर भले ही कोई उपन्यास ना लिखे, फिल्म ना बनाये पर उसने जो लाइन खींची है, उसके आगे ममता की तमाम लकीरें बौनी हो चुकी हैं। हम उसी समाज में उस मां को देख रहे हैं, जहां इज्जत के नाम पर बेटियों को मार डालने वाले पतियों और बेटों के पक्ष में बोलने वाली मांओं की मजबूरी अकसर उनके चेहरे से टपकते देखते हैं। यह उन औरतों का संकोच है, भय है। जो उनको निष्पक्ष होकर सोचने भी नहीं देता। जो उनकी ममता पर सिर्फ बेटे की मां होने का लेमिनेशन कर देता है। यह डर इतना निष्ठुर और नीरस होता है कि इनकी ममता अपनी कोख जायी बेटी को जीने भी नहीं दे सकता। ऐसे भय से मुक्ति की तो कोई र्चचा ही नहीं होती। जो औरत के पूरे चरित्र को संदेहास्पद बना देता है, जिसकी मसखरी करने वाला हर मर्द कमजोरी कहता फिरता है। औरतों की तथाकथित कमजोरियों को ही यदि प्रयास करके हथियार बना दिया जाए तो तय रूप में यह सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। उसको कमजोर बताकर, उसकी निर्ण य क्षमता पर उं गली उठाकर, उसको सुबह-शाम दयनीयता की याद दिला कर ही मर्दवादी सत्ता ने उस पर शासन किया है। जिस दिन औरतों को अपने दब्बूपन का अहसास हो जाएगा, उस दिन ऑटोमेटिक तमाम अपराधों के खिलाफ वे एकजुट हो जाएंगी। सहना, बर्दाश्त करना, चुप रह जाना तब मुहावरे रह जाएंगे। सच तो यह है कि जीवन तभी सुखकर और मधुर हो सकता है, जब औरतों पर होने वाले भावनात्मक अतिक्रमण को तिलांजलि दे दी जाए। इसके लिए प्रयास पुरुषों को ही करने हैं, यदि वे नहीं करेंगे तो वह दिन दूर नहीं, जब औरतें गद्दाफी/हो स्नी मुबारक की तर्ज पर उनको दर-ब-दर करने को मजबूर हो जाएंगी!

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